राजमा की खेती कैसे होती है | Rajma Farming in Hindi | राजमा से कमाई


राजमा की खेती (Rajma Farming) से सम्बंधित जानकारी

राजमा एक दलहनी फसल है, जिसके दाने अन्य दालों की तुलना में काफी बड़े होते है | इसकी कच्ची फलियों को सब्जी में डालकर इस्तेमाल किया जाता है | इसके पौधों को विकास करने के लिए सहारे की आवश्यकता होती है, क्योकि इसके पौधे झाड़ी और लताओं के रूप में बढ़ते है | राजमा में प्रोटीन की मात्रा अधिक पाई जाती है, जो शरीर के लिए काफी फायदेमंद होते है | भारत में राजमा की फसल को उत्तर, दक्षिण और पूर्वी राज्यों में अधिक मात्रा में उगाया जाता है | इसकी फसल रबी और खरीफ दोनों ही समय कर सकते है |

बाजारों में राजमा का काफी अच्छा भाव मिल जाता है, जिससे किसानो के लिए राजमा की खेती फायदेमंद साबित हो रही है | यदि आप भी राजमा की खेती करने का मन बना रहे है, तो इस लेख में आपको राजमा की खेती कैसे होती है (Rajma Farming in Hindi) तथा राजमा से कमाई से जुड़ी विशेष जानकारी दी जा रही है|

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राजमा की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी, जलवायु और तापमान (Kidney Beans Cultivation Suitable Soil, Climate and Temperature)

राजमा की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली बलुई दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है | राजमा की खेती में भूमि का P.H. मान 6.5 से 7.5 के मध्य होना चाहिए | यह एक आद्र और शुष्क जलवायु की फसल होती है, जिसमे जलवायु और तापमान अधिक अहमियत रखता है | भारत में राजमा की खेती खरीफ और रबी दोनों ही मौसम में की जाती है | राजमा के पौधों को अच्छे से वृद्धि करने के लिए सामान्य तापमान की आवश्यता होती है | अधिक गर्म और सर्द जलवायु इसके पौधों के लिए लाभदायक नहीं होती है | राजमे के बीजो को अंकुरण के समय 20 से 25 तापमान की आवश्यकता होती है, तथा अंकुरण के बाद 10 से 30 डिग्री के तापमान पर इसके पौधे अच्छे से विकास करते है | इसकी फसल के लिए न्यूनतम 10 तथा अधिकतम 30 डिग्री का तापमान होना चाहिए | इससे अधिक तापमान होने पर फूलो के झड़ने का खतरा रहता है|

राजमा की उन्नत किस्में (Rajma Improved Varieties)

वर्तमान समय में बाज़ार में राजमा की कई उन्नत किस्में मौजूद है, जिन्हे अलग-अलग जलवायु और भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के हिसाब से अधिक पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है | जिसकी जानकारी इस प्रकार है –

पी.डी.आर. 14

राजमा की इस क़िस्म को उदय नाम से भी पुकारा जाता है | इसमें निकलने वाले पौधे सामान्य लम्बाई वाले होते है | इस क़िस्म को तैयार होने में बीज रोपाई के बाद तक़रीबन 125 से 130 दिन का समय लग जाता है, जिसमे निकलने वाले दाने लाल चित्तीदार होते है | राजमा की यह क़िस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 30 क्विंटल पैदावार देती है |

एच.यू.आर 15

इस क़िस्म का पौधा 120 से 125 दिन बाद पैदावार देना आरम्भ कर देता है | इसमें निकलने वाले दाने सफ़ेद रंग के होते है, जो प्रति हेक्टेयर 20 से 25 क्विंटल की पैदावार देते है |

मालवीय 137

मालवीय क़िस्म के पौधे बीज रोपाई के तक़रीबन 115 से 120 दिन पश्चात पैदावार देना शुरू कर देते है | इसमें निकलने वाले दानो का रंग लाल होता है, तथा इसमें प्रति हेक्टेयर 25 से 30 किवंटल की पैदावार प्राप्त हो जाती है |

इसके अतिरिक्त भी राजमा की कई उन्नत किस्मों को कम समय में अधिक पैदावार देने के लिए उगाया जाता है, जो इस प्रकार है :- अम्बर, उत्कर्ष, वी.एल. 63, बी.एल 63, एच.पी.आर 35, अरुण, आई.आई.पी.आर 96-4, हूर -15 और आई.आई.पी.आर 98 आदि |

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राजमा के खेत की तैयारी और उवर्रक की मात्रा (Rajma Field Preparation and Amount of Fertilizer)

राजमा के खेत को तैयार करने के लिए सबसे पहले उसकी अच्छी तरह से मिट्टी पलटने वाले हलो से गहरी जुताई कर देनी चाहिए, इससे पुरानी फसल के अवशेष पूरी तरह से नष्ट हो जाते है | खेत की जुताई के बाद उसे कुछ समय के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दे | इसके बाद खेत में 10 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को डालकर दो से तीन तिरछी जुताई कर दे, इससे गोबर की खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिल जाती है |

खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद उसमे पानी लगाकर पलेव कर दे | पलेव के बड़ा जब खेत की मिट्टी सूखी दिखाई देने लगे तब उसमे रोटावेटर लगवा कर चला दे, इससे खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जाएगी | इसके बाद खेत में पाटा लगाकर भूमि को समतल कर दिया जाता है | यदि आप इसकी खेती में रासायनिक खाद का इस्तेमाल करना चाहते है, तो उसके लिए आपको 120 KG डी.ए.पी. की मात्रा को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना होता है | इसके बाद खेत की आखरी जुताई के समय उसमे 60 KG नाइट्रोजन की मात्रा का छिड़काव करना होता है |

राजमा के बीजो की रोपाई का सही समय और तरीका (Rajma Seeds Sowing Right Time and Method)

राजमा के बीजो की रोपाई को ड्रिल विधि द्वारा किया जाता है | इसके बीजो की रोपाई पंक्तियों में की जाती है, इसलिए बीजो की रोपाई से पहले खेत में एक से डेढ़ फ़ीट की दूरी रखते हुए पंक्तियों को तैयार कर लिया जाता है | इसके बाद 10 से 15 CM की दूरी रखते हुए ड्रिल विधि द्वारा इसके बीजो की रोपाई कर दे | राजमा के बीजो की रोपाई से पहले उन्हें कार्बेन्डाजिम या गोमूत्र से उपचारित कर लेना चाहिए | इससे पौधों में रोग लगने का खतरा कम हो जाता है|

भारत में राजमा की खेती अलग-अलग स्थान और जलवायु के हिसाब से की जाती है, पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी खेती को खरीफ की फसल के समय करते है, तथा उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में इसकी रोपाई नवंबर के माह में की जाती है|

राजमा के पौधों की सिंचाई (Rajma Plants Irrigation)

राजमा के पौधों को अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है | इसकी पहली सिंचाई को बीज रोपाई के तकरीबन 20 से 25 दिन बाद कर देना चाहिए | लेकिन जिन किसानो ने इसकी रोपाई सूखी भूमि में की है,उन्हें खेत में नमी को बनाये रखने के लिए बीज रोपाई से लेकर बीजो के अंकुरण तक हल्की सिंचाई करनी चाहिए | इसके पौधों को अधिकतम 4 से 5 सिंचाई की जरूरत होती है |

राजमा की फसल में खरपतवार नियंत्रण (Rajma Crop Weed Control)

इसकी फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक और प्राकृतिक दोनों ही तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है | रासायनिक विधि द्वारा खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए पेन्डीमेथलीन की उचित मात्रा का छिड़काव बीजो की रोपाई के तुरंत बाद करना होता है | इसके अलावा प्राकृतिक विधि द्वारा खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए निराई – गुड़ाई की जाती है | इसकी पहली गुड़ाई को बीज रोपाई के तकरीबन 20 दिन बाद करना होता है | इसके बाद दूसरी गुड़ाई को भी 15 से 20 दिन बाद खरपतवार दिखाई देने पर कर देना चाहिए |

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राजमा के पौधों में लगने वाले रोग एवं उनकी रोकथाम (Rajma Plants Diseases and their Prevention)

राजमा के पौधों में अनेक प्रकार के रोग लगने का खतरा होता है, यदि इन रोगो से सही समय पर फसल को नहीं बचाया जाता है, तो यह पैदावार को अधिक प्रभावित कर सकती है | जिसकी जानकारी इस प्रकार है-

तना गलन रोग

यह एक सामान्य रोग होता है, जो अक्सर ही पौधों पर जलभराव की स्थिति में देखने को मिल जाता है | यह रोग पौध अंकुरण के समय ही दिखाई देता है | इस रोग से प्रभावित होने पर पौधों की पत्तियों पर पीले रंग का जलीय धब्बा बन जाता है | रोग के अधिक बढ़ जाने पर धब्बे का आकार भी विशाल हो जाता है, जिससे पौधे की पत्तिया पीली होकर गिर जाती है | इस रोग से बचाव के लिए कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा को सम्पूर्ण पौधों पर छिड़क देना चाहिए |

फली छेदक

फली छेदक रोग राजमा के पौधों पर कीट के रूप में देखने को मिलता है | इस कीट का लार्वा फलियों के बीजो को पूरा खा जाता है, जिससे पैदावार अधिक प्रभावित होती है | मोनोक्रोटोफास या एन.पी.वी. की उचित मात्रा का छिड़काव या पौधों पर नीम के तेल का छिड़काव कर इस रोग की रोकथाम की जा सकती है |

पर्ण सुरंगक

इस क़िस्म का रोग पौधों की पत्तियों को अधिक प्रभावित करता है | इस रोग के कीट पत्तियों को खाकर नष्ट कर देते है, जिससे पौधा अपना भोजन नहीं प्राप्त कर पाता है, और कुछ समय पश्चात ही सूखकर नष्ट हो जाता है | इमिडाक्लोरोप्रिड या डाईमिथोएट की उचित मात्रा का घोल बनाकर पौधों पर छिड़काव करने से इस रोग से बचा सकते है |

इसके अलावा भी पौधों में कई तरह के रोग पाए जाते है, जो पौधों को हानि पहुँचाकर पैदावार को प्रभावित करते है, जैसे – माहू, कोणीय धब्बा आदि |

राज़मा के फसल की कटाई पैदावार और कमाई (Rajma Crop Harvesting Yield and Benefits)

राजमा के पौधों को तैयार होने में तक़रीबन 120 से 130 का समय लग जाता है, इसके बाद जब इसकी पत्तिया पीले रंग की दिखाई देने लगे, तब इसके पौधों को भूमि के पास से काट लेना चाहिए | पौधों की कटाई के बाद उन्हें अच्छी तरह से धूप में सूखा लिया जाता है | इसके बाद मशीन की सहायता से इसके बीजो को ठीक से निकाल ले | किसान भाई एक हेक्टेयर के खेत में तक़रीबन 25 क्विंटल की पैदावार प्राप्त कर सकते है | राजमा का बाज़ारी भाव थोक के रूप में 8,000 रूपए प्रति क्विंटल होता है | जिस हिसाब से किसान भाई एक हेक्टेयर के खेत में डेढ़ लाख की कमाई कर अच्छा लाभ कमा सकते है |

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